Karyalaya Jiwan Ke Ekanki
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ISBN: 8173152012
पोलूराम : नयी दुल्हन की तरह लजाते क्यों हो? कमीशन? बिल्कुल जायज! जो दस्तूर है, उसमें क्या हेराफेरी? बँधे-बँधाए रेट्स हैं—एक परसेंट आपका और पाँच परसेंट साब का।
एकाउंटेंट : जिन दिनों धेले के छोले और धेले का कुल्चा खाकर पेट तन जाता था, उन दिनों के रेट्स हैं ये, लालाजी! आजकल दो आने का दोनों दाढ़ में लगा रह जाता है। दर्जी की सिलाई क्या वही रह गयी? धुलाई के रेट्स कहीं-के-कहीं गये। स्कूलों की फीसें, वकीलों के मेहनताने, डॉक्टरों के चार्ज कहीं-के-कहीं चले गये, यानी—हम तो नाई, धोबी, कुम्हार के बराबर भी न रहे।...हमें भी तो बच्चे पालने हैं, कोई खेती-बाड़ी तो है नहीं।...
—इसी संकलन से
आज के जमाने में सत्ता और जनता के बीच पनपनेवाले सर्वाधिक शक्तिशाली बिचौलिए नौकरशाहों के रंग-ढंग, रीति-नीति और मन-मिजाज की बहुरंग-रसमय झलकियाँ प्रस्तुत करते हैं—
कार्यालय जीवन के एकांकी
सरकार और प्रशासन के राज-रथ को चलानेवाले इन छोटे-बड़े बाबुओं तथा जनता के ‘माई-बाप’ अफसरों की आपसी खींचतान, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और सत्ता-सापेक्ष सरगर्मियों का सरस दृश्यांकन—