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Kayantaran

Kayantaran

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ISBN: 9789386001788

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अरुंधती, चैतन्य होकर मेरी बात सुनो! अपने कर्तव्य को तुमने अपनी संपूर्ण जिजीविषा दी! इस सृष्‍ट‌ि की रचना में सर्वत्र तुम-हीं-तुम हो! काल की गति में तुम्हारे श्‍वासों का खिंचाव बस इतना भर ही था ।

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