मैं हक्का-बक्का रह गया। वह मछली ही थी। मछली के सिवा ऐसा कोई हँस ही नहीं सकता। थोड़ी ज्यादा लंबी हो गई थी।
बदन हृष्ट-पुष्ट हो गया था। कुछ श्याम हो गई थी। घुटनों तक पहुँचने वाले बाल सूखे थे।
मैं हक्का-बक्का रह गया। वह मछली ही थी। मछली के सिवा ऐसा कोई हँस ही नहीं सकता। थोड़ी ज्यादा लंबी हो गई थी।
बदन हृष्ट-पुष्ट हो गया था। कुछ श्याम हो गई थी। घुटनों तक पहुँचने वाले बाल सूखे थे।
''मुझे पहचाना नहीं?’ ’ कहकर मछली फिर से हँसी।
''कल बड़े चाचा आए थे। तुम सब आए हो, ऐसी खबर दी। मुझे लगता ही था कि तुम आओगे।’ ’
''बहुत साल बीत गए, नहीं?’ ’ मैंने कहा। बाद में आगे बताया, ''रामगर महाराज स्वर्ग सिधार गए, यह समाचार मुझे आज ही मिला।’ ’
मछली ने आसमान की ओर उँगली दिखाई, बाद में त्रिशूल के सामने देखकर बोली, ''पिताजी का त्रिशूल वैसी ही स्थिति में सँभालकर रखा है।’ ’
''तब से...तब से...’ ’ मैं थोड़ा हिचकिचाया। उसे अब 'तू’ कैसे कह सकता हूँ? 'मछली’ कहकर भी संबोधन नहीं कर सकता। ''यहाँ कौन रहता है?’ ’ जवाब जानता था, उसके बावजूद सवाल पूछ बैठा।
''रक्षा करती हैं जगदंबा माता और आसपास की देखभाल में मेरा समय बीत जाता है।’ ’
—इसी संग्रह से